पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६३८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्ध मलिन कुछ मौन बना, जिसके ऊपर विगत कम का विप विषाद आवरण तना। टहल रहे, उल्का धारी प्रहरी से ग्रह तारा नभ म वसुधा पर यह होता क्या है अणु अणु क्यो है मचल रहे ? जीवन मे जागरण सत्य है या सुपुप्ति ही सीमा है, आती है रह रह पुकार सी 'यह भव रजनी भीमा है।' निशिचारी भीषण विचार के पख भर रहे सरस्वती थी चली जा रही खीच रही सी सर्राटे, सन्नाटे। निर्व१५॥