पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६३४

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बहते विकट अधीर विषम उचास बात थे, भरण पव था, नेता आकुलि औ' किलात थे। ललकारा, 'वस अब इसको मत जाने देना' किंतु सजग मनु पहुँच गये कह 'लेना लेना'। "कायर । दोनो ने ही उत्पात मचाया, अरे, समझ कर जिनको अपना था अपनाया । तुम तो फिर आओ देसो कैसे होती है बलि, रण यह, यज्ञ पुरोहित । ओ किलात औ' आकुलि ।" और घराशायी थे असुर पुरोहित उस क्षण, इडा अभी कहती जाती थी "बस रोको रण भीषण जन सहार आप ही तो होता है, ओ पागल प्राणी तू क्यो जीवन खोता है। क्यो इतना आतक ठहर जा ओ गर्वीले। जीने दे सबको फिर तू भी सुख से जी ले।" किंतु सुन रहा कौन । घघक्ती वेदी ज्वाला, सामूहिक बलि का निकला था पथ निराला। रक्तोन्मद मनु का न हाथ अब भी रुक्ता था, प्रजा पक्ष का भी न किंतु साहस झुक्ता था। वही घर्षिता खडी इडा सारस्वत रानी, व प्रतिशोध अधीर रक्त बहता बन पानी। सघर्प ।। ६११॥