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"मायाविनि ! वस पाली तुमने ऐसे छुट्टी, लडके जैसे सेलो म कर लेते सुट्टी। मूर्तिमती अभिशाप बनी मो सम्मुस आयी, तुमने ही सधप भूमिका मुझे दिसायो । रुधिर भरी वेदियों भयरी उनम ज्वाला । विनयन का उपचार तुम्ही से सोय निकाला। चार वण बन गये बँटा श्रम उनका अपना, शस्त्र यन बन चले, न देखा जिनका सपना। आज शक्ति का खेल खेलने मे आतुर नर, प्रकृति संग सघप निरतर अव कैसा डर ? वाधा नियमो की न पाम म अब आने दो, इस हताश जीवन मे क्षण सुख मिल जाने दो। राष्ट्र स्वामिनी । यह लो सब कुछ वैभव अपना, केवल तुमको सब उपाय से कह लूं अपना । यह सारस्वत देश या वि फिर ध्वम हुआ सा । समझो, तुम हो अग्नि और यह सभी धुआँ सा?" "मैंने जो मनु ! किया उसे मत या कह भूलो । तुमको जितना मिला उसी में या मत फूलो प्रसाद वाङ्गमय । ६०६॥