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किन्तु आज ही अभी लौट कर फिर हो आयो, वैसे यह साहस की मन मे वात समायो। आह प्रजापति होने का अधिकार यही क्या ? अभिलापा मेरी अपूण ही सदा रहे क्या ? ? में सबको वितरित करता ही सतत हूँ क्या कुछ पाने का यह प्रयास है पाप सहूँ क्या? ? तुमने भी प्रतिदान किया कुछ कह सक्ती हो मुझे ज्ञान देकर ही जीवित रह सकती हो। जो मैं हूँ चाहता वही जब मिला नहीं है, तब लौटा लो व्यथ बात जो अभी कही है।" X X "इडे । मुझे वह वस्तु चाहिए जो मै चाहूँ, तुम पर हो अधिकार, प्रजापति न तो वृथा हूँ। तुम्हे देख कर सब वधन ही टट रहा अब, शासन या अधिकार चाहता हूँ न तनिक अब । देखो यह दुधष प्रकृति का इतना कपन । मेरे हृदय समक्ष क्षुद्र है इसका स्पदन । इस कठोर ने प्रलय खेल है हँस कर खेला । किन्तु आज कितना कोमल हो रहा अकेला? । प्रसाद वाङ्गमय ।। ६०४॥