आलिंगन । फिर भय का ऋदन | वसुधा जैसे कांप उठी । वह अतिचारी, दुवल नारी पारिताण पथ नाप उठी। अतरिक्ष मे हुआ रुद्र हुकार भयानक हलचल थी, अरे आत्मजा प्रजा। पाप की परिभाषा बन शाप उठी। उधर गगन मे क्षुब्ध हुइ सब देव शक्तिया। क्रोध भरी, रुद्र-नयन खुल गया अचानक, व्याकुल काप रही नगरी, अतिचारी था स्वय प्रजापति, देव अभी शिव बने रहे नही, इसी से चढी शिजिनी अजगव पर प्रतिशोध भरी। 1 प्रकृति अस्त थी, भूतनाथ ने नत्य विकम्पित पद अपना, उधर उठाया, भूत सष्टि सब होने जाती थी सपना आश्रय पाने को सर व्याकुल, स्वय कलुप मे मनु सदिग्ध, फिर कुछ होगा यही समझ कर वसुधा का थर-थर कंपना । 12 - कांप रहे थे प्रलयमयी क्रीडा से सव आशक्ति जतु, अपनी-अपनी पडो मभी को, छिन स्नेह का कोमल ततु आज कहा वह शासन था जो रक्षा का था भार लिये, इडा क्रोध लज्जा से भर कर बाहर निकल चली थी किंतु । देखा उसने, जनता व्याकुल राजद्वार कर रुद्ध रही, प्रहरो के दल भी झुक आये उनके भाव विशुद्ध नही, नियमन एक झुकाव दबा सा, टूटे या ऊपर उठ जाय । प्रजा आज कुछ और सोचती अब तक जो अविरुद्ध रही । स्वप्न ॥५९५
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