अपनी ज्वाला से कर प्रकाश जब छोड चला आया सुदर प्रारभिक जीवन का निवास वन, गुहा, कुज मरु अचल म हूँ खोज रहा अपना विकास पागल मैं, किम पर सदय रहा? क्या मैंने ममता ली न तोड ? किस पर उदारता से रीझा ? किससे न लगा दी कडी होड ? इस विजन प्रात मे विलख रही मेरी पुकार उत्तर न मिला लू मा झुलसाता दौड रहा कब मुझसे कोई फूल खिला मैं स्वप्न देखता हूँ उजडा करपना लोक मे कर निवास देखा कर मैने कुसुम हास। इस दुख मय जीवन का प्रकाश नम नील लता को डाला मे उलझा अपने सुख से हताश कलिया जिनको में समझ रहा वे कांटे बिखरे आस पास कितना बीहड पथ चला और पड़ रहा कही थक कर नितात उन्मुक्त शिखर हँसने मुझ पर रोता मै निवासित अशात इस नियति नटी के अति भीषण अभिनय की छाया नाच रही साखली शून्यता म प्रतिपद असफलता अधिक कुलाच रही पावस रजनी म जुगुनू गण को दौड पकडता म निराश उन ज्योति कणो का कर विनाश ! प्रसाद वाङ्गमय ॥५६८॥
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