पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५९६

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- "किस गहन गुहा से अति अघोर झझा प्रवाह सा निक्ला यह जीवन विक्षुब्ध महा समीर ले साथ विकल परमाणु पुज नभ, अनिल, अनल, क्षिति और नीर भयभीत सभी को भय देता भय की उपासना मे विलीन प्राणी कटुता को बांट रहा जगती को करता अधिक दोन निर्माण और प्रतिपद विनाश मे दिखलाता अपनी क्षमता सघप कर रहा सा जब से, सर से विराग सब पर ममता अस्तित्व चिरतन धनु से क्व यह छूट पडा है विषम तीर किस लक्ष्य भेद को शून्य चीर?" 7 देखे मैंने वे शैल शृग जो अचल हिमानी से रजित, उन्मुक्त, उपेक्षा भरे तुग अपने जड गौरव के प्रतीक वसुधा का कर अभिमान भग अपनी समाधि में रहे सुखी बह जाती हैं नदियां अबोध कुछ स्वेद बिंदु उसके लेकर वह स्तिमित नयन गत शोक क्रोध स्थिर मुक्ति, प्रतिष्ठा में वैसी चाहता नहीं इस जीवन की मै तो अवाध गति मरुत सदृश, हूँ चाह रहा अपने मन को जो चूम चला जाता अग जग प्रति पग मे क्पन की तरग वह ज्वलन शील गतिमय पतग । इडा ॥५६७॥