पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५८४

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पल भर की उस चचलता ने खो दिया हृदय का स्वाधिकार श्रद्धा की अब वह मधुर निशा फैलाती निष्फल अधकार मनु को अब भगया छोड नही रह गया और था अधिक काम लग गया रक्त था उस मुख मे हिमा-सुख लाली से ललाम हिंसा ही नही और भी कुछ वह खोज रहा था मन अधीर । अपने प्रभुत्व की सुख सीमा जो बढती हो अवसाद चोर । जो कुछ मनु के करतलगत था उममे न रहा कुछ भी नवीन श्रद्धा का सरल विनोद नही रचता अब था बन रहा दीन । उठती अतस्तल से मदेव दुललित लालसा जो कि कात, वह इद्रचाप सी झिलमिल हो ."दा जतिी अपने लापजाता। ॥५४९॥