पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५५६

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निस्सबल होकर तिरती हूँ इस मानस की गहराई मे, चाहती नही जागरण कभी सपने की इस सुघराई मे। नारी जीवन का चिन यही क्या ? विकल रग भर देती हो, अस्फुट रेखा की सीमा मे आकार कला को देती हो। रुकती हूँ और ठहरती हूँ पर सोच विचार न कर सकती, पगली सी काई अतर मे बैठी जैसे अनुदिन बकती। में जभी तोलने का करती उपचार स्वय तुल जाती हूँ, भुज लता फंसा कर नर तरु से भूले सी झोंके खाती हूँ। इस अपण म कुछ और नही केवल उत्मग छलकता है, में दे दूं और न फिर कुछ हूँ इतना ही सरल झलकता।" लज्जा ॥५१५॥ 1