पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५३५

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और वह पुचकारने का स्नेह शवलित चाव, मजु ममता से मिला बन हृदय का सद्भाव । देखते ही देखते दोनो पहुँच कर पास, लगे करने सरल शोभन मधुर मुग्ध विलास । - वह विराग विभूति ईर्पा पवन से हो व्यस्त, विखरती थी, और खुलते ज्वलन क्ण जो अस्त । किन्तु यह क्या ? एक तीखी धूट हिचकी आह । कौन देता है हृदय म वेदना मय डाह ? "आह यह पशु और इतना सरल सुन्दर स्नेह । पल रहे मेरे दिये जो अन से इस गेह। में? कहा मैं ? ले लिया करते सभी निज भाग, और देते व मेरा प्राप्य तुच्छ विराग । अरी नीच वृतघ्नते । पिच्छल शिला मलग्न, मलिन कोई सी करेगी हृदय क्तिने भग्न? हृदय का गजम्ब अपहृत, कर अधम अपराध, दस्यु मुझसे चाहते हैं सुख सदा निर्माध । प्रमाद वाङ्गमय ॥४२४ ॥