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चल पड़े कव से हृदय दो पथिक से अथात, यहा मिलने के लिए, जो भटकते थे भ्रात । एक गृह-पति, दूसरा था अतिथि विगत विकार, प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उदार । एक जीवन सिंधु था, तो वह लहर लधु लोल, एक नवल प्रभात, तो वह स्वण किरण अमोल । एक था आकाश वर्षा का सजल उद्दाम, दूसरा रजित किरण से श्री कलित घनश्याम । नदी तट के क्षितिज म नव जलद, सायकाल, खेलता ज्यो दो विजलियो से मधुरिमा जाल । लड रहे अविरत युगल थे चेतना के पाश, एक सकता था न कोई दूसरे को फाँम । था समपण मे ग्रहण का एक सुनिहित भाव, थी प्रगति, पर अडा रहता था सतत अटकाव । चल रहा था विजन-पथ पर मधुर जीवन-खेल, दो अपरिचित से नियति अब चाहती थी मेल 1 नित्य परिचित हो रहे तन भी रहा कुछ शेप, गूढ अतर का छिपा रहता रहस्य विशेष । दूर जैसे सघन वन-पथ अत का आलोक, सतत होता जा रहा हो, नयन को गति रोक । वासना ॥४९१॥