उदयास्त सम्पन्न होते रहते हैं। रस द्वारा ही विश्व का पोषण आप्यायन होता है। करणामयो विश्व माता अपने शिशु को रसपान द्वारा ही आनन्द मग्न और जीवन्त रखती है-रस ही सृष्टि मूल है। सत्ता (सत् + ता) रस द्वारा ही विजिज्ञास्य और विज्ञात होती है 'रसोवै स'। इसको मगलमयी सत्ता के, स्नेह निष्यन्दिनी-मातृमूर्ति से प्रवाह के निवचा मे ऋचा कहती है- यो व शिवतमोरसस्तस्यभाजयतेह न । उशतीरिवमातर ॥ ( १०-९-२) ऐसे रूपकीय रसानुभूति के धरातल पर सचरित साहित्य दुखदग्ध जगत और आगन्दपूण स्वग का वैसा एकीकरण अनायास ही कर लेगा जिसे प्रसाद भारती साहित्य का स्वरूप मानती है और जहाँ दुखमय दिग्दाहो से पीयूष के मेघ सम्पृक्त रहते हैं। साहित्य यदि 'दुसदग्ध जगत और आनन्दपूण स्वग का एवोकरण' नही कराता तो, या तो वह विधि निषेध-परख धमशास्त्र बनेगा अथवा विवेक की सशयात्मक खनित्री से निकला किसी घटना विशेप का दृष्टि विशेष युक्त उल्लेख होगा किंवा विकल्पध्वसावशेषो से उत्खनित सीमित तथ्यो का कोई पुराभिलेख होगा किन्तु, रसभाव की प्रेय प्रचुर सष्टि उस साहित्य मे सम्भव न होगी। वैसे एकोकरण का माग नाट्यरसो के साधारणीकरण से ही सम्भव है । वह रसानुभूति, मानव ईश्वर से अभिन्न ही नही स्वय ईश्वर ही है-इस सहज बोध म है। सुतराम् मानव, व्यक्ति नही समष्टिभूत मानव, महत्तम है स्वयमेव ईश्वर है। और महत्ता ही महाकाव्य का प्राण है। विवेकपरम्परा में महानो की चर्चा महाकाव्या मे रहती है समष्टिभूत महत्तम मानव की नही जिसमे लघुतम और जनसाधारण ही प्रधानत उपादानभूत है। जो अणोरणीयान है वही तो महतो महीयान है और वह, युगो से उपेक्षित क्षुद्रतम बना मानव हो तो है ? जिसके अथ कहा है 'मनुष्य देहमास्थायछन्नास्ति परमेश्वर' मानव के शोषण, उपेक्षा और उसकी कदथना के विरोध मे साहित्य जगत म यह अप्रतिम विद्रोही स्वर है, एक ऐसे क्रान्ति की घोषणा है जिसने निहित स्वाथपरक सामन्ती विचार धारा को अपने ढग से चुनौती दी है । तक म युक्ति से अधिक काम लिया गया है । समथन म शास्त्र वाक्य भी अनायास जुटते रहे। वस्तुत मानव मे राम है अथवा वह कोई लोकोत्तर सत्ता है इसकी कहापोह से बेचारे मानव का क्या सधा, प्रसाद वाङ्गमय ॥६२॥ .
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