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कुकुम का चूण उडाते से मिलने को गले ललकते से अतरिक्ष के मधु उत्सव के विद्युत्कण मिले झलकते से। वह आकपण, वह मिलन हुआ प्रारम्भ माधुरी छाया मे, जिसको कहते सब सृष्टि, बनी मतवाली अपनी माया म। प्रत्येक नाश विश्लपण भी सश्लिष्ट हुए, बन सृष्टि रही, ऋतुपति के घर कुसुमोत्सव था मादक मरद की वृष्टि रही। भुज-लता पडी सरिताओ की शेला के गले सनाथ हुए, जलनिधि का अचल व्यजन वना धरणी का, दो दो साथ हुए । कोरव अकुर सा जन्म रहा, हम दोनो साथी झूल चले, उस नवल सग के कानन मे मृदु मल्यानिल से फूल चले । काम ॥४८३॥