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तारा बनार यह बिखर रहा क्या स्वप्नो का उमाद अरे। मादयता माती नीद लिये सोळं मन मे अवसाद भरे।" चेतना शिथिल सी होती है उन अधकार की लहरो मे, मनु डूब चले धोरे-धीरे रजनी ने पिछले पहरो मे। उम दूर क्षितिज म मष्टि बनी स्मृतियो की सचित छाया से, इस मन को है विश्राम कहा चचल यह अपनी माया से । , जागरण लार था भूल चला स्वप्ना का सुख सचार हुआ, कौतुक सा वन मनु के मन का वह सुन्दर क्रोडागार हुआ। था व्यक्ति सोचता आलस म चेतना सजग रहती दुहरी, कानो के कान खोल कर के सुनती थी कोई ध्वनि गहरी । प्रसाद वाङ्गमय ।। ४८०॥