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उठती है रिनो के ऊपर कोमल पिसलय की छाजन सी, स्वर का मधु निस्वन रथ्रो मे जैसे कुछ दूर बजे बसी। सब कहते है 'खोलो खोलो छवि देखूगा जीवन धन की', आवरण स्वय बनते जाते है भीड लग रही दशन की। चादनी सदृश खुल जाय कही अवगुठन आज सवरता सा, जिसमे अनत कल्लोल भरा लहरो मे मस्त विचरता सा- अपना फेनिल फन पटक रहा, मणियो का जाल लुटाता सा, उतिद्र दिखाई देता हो उन्मत्त हुआ कुछ गाता सा ।' प्रसाद वागमय ॥४७८॥