पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५२

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जनित विभीपिकायें निरस्त कर दी जायं (और ज्वालामुखियां हो चूर्ण) और इन सब प्रत्यावायो को एक नगण्य स्फुलिंग सदृश कुचल कर दृप्त मानवता को दृढमूर्ति अपनी सम्पूण सति मे उठ सडी हो । विश्व का दुवल विन्दु' उसका बल बने । वर्गात्पीडन चक्र मे प्रथमत पिष्ट, अवला- भूत नारी अपने बलात् छीने गये अधिकारो को अधित कर बलमूत्ति हो जाय । शक्ति अबला नही सवला होकर ही शक्तिमान को स्पन्दित करती है। युगो के अन्तराल मे दीख पड़ने वाले उसपे पराजय एक श्रीडावृत्ति मान है किसकी, यह प्रश्न अन्य है। मूल मे समाज मातृ सत्तापरक है जिसके प्रतिपेध मे पितृ सत्ता का उदय हुआ और इस क्रिया प्रतिक्रिया में विखण्डित शक्ति प्रतिमा अब ममन्वित होकर ही उस मानवता को विजयिनी बना सकती है जो उसकी सन्तानधारा है। नर और नारी समन्वय भूमिका पर ही सृष्टि मगल कर सकते हैं विषम भूमि एक को अनुवर्रा और दूसरे को पुस्पाथहीन बनाती है। समाज म आदि वगसघर्ष भूमि नर और नारी के मध्य बनी और यही भमि वग सघष का अन्तिम कुरक्षेत्र होने के योग्य भी है । एतदय मानव के भावात्मक, भावगत और भावनिष्ठ उस सत्य को देखना होगा और, उस तदथ चेतना का इतिहास जानना होगा जो शाश्वत-अभिनय रत होकर अपनी अभिव्यक्ति म स्थूल घटना के क्षणों का इतिहास बन जाती है केवल पदाथ सत्य अथवा सत्य की क्षण भगिमायें ही नही । विश्वसृष्टि के मच पर गिरने उठने वाली प्रति- सीराओ में समष्टि चेतना का अनवरत दृश्य रूपक चलता है, इस रूपकीय रसानुभूति की विवृति मे कहा है- एप प्रकाश रूप आत्मा स्वछन्दो ढोक्यति निज रूपम् पुन प्रक्टयति झटित्ति क्रमवशाद् एप परमाथने शिवरसम् रूपकीय साधारणीकरण म रस की यह एक विमल झांकी है। यहाँ परमाय और शिवरस को सम्प्रदाय अथवा धम को 'चरमे' से न देस मूलत उद्दिष्टि अर्थात परमाथ और, ससृति के अथ मगलमय, पोषक और प्रेयरस अर्थात शिवरस और आत्मा को सहज-स्वतन्त्र प्रकाश रूप निज चैतन्य के अथ मे ग्रहण करने मे युगबोध से कही विसवाद नहीं। यह उमीलन निमीलन नाटयधम का मूल और सहार सृजन के युगलपाद' वाले नटराज की भावमूर्ति भी है। स्वच्छन्द विया निरावृत प्रकाश रूप- आत्मा की ढाक्ने उपारने को सहज-लीला उसकी विमशरूपिणी शक्ति के माध्यम से चलती है जिसमे विश्व ससृति रूप उसकी सतान के प्राक्कथन ॥६१॥