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दिवा राति या-मित्र वरण की बाला का अक्षय शृगार, मिलन लगा हंसने जीवन के उमिल सागर के उस पार । तप से सयम का सचित बल तृपित और व्याकुल था आज, अट्टहास कर उठा रिक्त का वह अधीर तम, सूना राज । धीर समीर परम से पुलक्ति विकल हो चला श्रात शरीर । आशा को उल्झी अलको से उठी रहर मधुगन्ध अघोर । मनु का मन था विक्ल हो उठा सवेदन से खा कर चोट, सवेदन । जीवन जगती को जो कटुता से देता घोट । प्रमाद वाङ्गमय ॥४४६॥