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सबल तरगाघातो से उस क्रुद्ध सिंधु के, विचलित सी व्यस्त महा कच्छप सी धरणी, । ऊभ-चूभ थी विकलित सी। बढने लगा विलास वेग सा वह अति भैरव जल सघात, तरल तिमिर से प्रलय पवन का होता आलिंगन प्रतिघात। वेला क्षण क्षण निकट आ रही क्षितिज क्षीण फिर लीन हुआ, उदधि डुवाकर अखिल धरा को बस मर्यादा हीन हुआ। करका बदन करती गिरती और कुचलना था सब का, पचभूत का यह ताडवमय नृत्य हो रहा था क्व का।" चिन्ता ॥ ४२