1 अन्तभूत है जो पदाथ से चैतन्यपय त सम्भव हैं मनु की सघर्प तपस्या मे एक दीप्त सत्य रूप वे युगलपाद प्रत्यक्ष होते है । बीसवी शती के द्वार पर खडी प्रसाद को सारस्वत प्रतिभा को युगावरोव मे युगप्रश्नो पर ठहरना, सोचना और ममझना पडा-लोक मानस के आसमग्र योगक्षेम की बलवती अभीप्सा और विश्वमागल्य के अभिजात सकरप ने उसे कुछ आगे बढने और भविष्य को सावभौम दृष्टि से ग्रहण करने की प्रेरणा दी, जिस भविष्य मे मानव को अतरिक्ष वेध करना था। उम प्रतिभा के ठहरने, सोचने और समझने के पड़ाव के रूप मे प्रसाद साहित्य की अन्य सभी कृतियां हैं, कामायनी को, जहा उस सकरप का सिद्धि मिलती है छोड शेष समस्त प्रसाद माहित्य इस रूप मे ग्रहण किया जा सकता है। कामायनी को जानने की चेष्टा स्वयमेव समग्र प्रसाद साहित्य को जानने की चेष्टा उसी प्रकार है जैसे "एकमेव विज्ञात सव विज्ञात भवति"। कामायनी के वस्तुतत्त्व और उसके विभिन्न अगो पर अनेक दृष्यिा से बहुत कुछ लिखा जा चुका और लिखा जायेगा। विन्तु उसके दर्शन उसके मनोविज्ञान, उसके साहित्य और उसमे निहित इतिहास-तत्त्व की गवेषणा करते हुये कवि दृष्टि उपेक्षित नही रहनी चाहिये । उनके जीवन- काल मे ही ऐसे प्रमगो का सूत्रपात हो चुका था और अस्पष्ट एव साग्रह-सापेक्ष समीक्षायें होने लगो थी जो वास्तविक दृष्टि से परिचित न रहने के कारण तथ्य-समीपी न थी । भविष्य मे ऐसी उलझना के बढने की आशका म उन्हे आवश्यक प्रतीत हुआ कि बिना किसी मतवाद और खण्डन मण्डन के उस वास्तविक सिद्धान्त दृष्टि का परिचय दे दिया जाय जिससे उनके साहित्य का आयाम अपने प्रकृत आलोक म देखा जा सक्ता हो । सुतराम् काव्य, नाटक, रम रगमच, रहस्यवाद, छायावाद प्रभृति उस समय उठे और चचित प्रसगो पर उन्होने सूशली मे कतिपय निबन्ध लिखे और साहित्य की प्रयोजनीयता और साहित्यकार वम के प्रति अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया जिससे उनके साहित्य पे चरम कथ्य कामायनी के हेतु, वस्तुतत्त्व और उसके स्वरूप सगठन को अमिज्ञा सहज रहे। वहा कहा गया "जब सामूहिक चेतना छिन भिन होकर पीडित होने लगती है, तब वेदना को विवृति आवश्यक हो जाती है। कुछ लोग कहते हैं साहित्यकार को आदशवादी होना ही चाहिये और सिद्धान्त से प्रसाद वाङ्गमय ॥५६॥
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