नाव के उत्तरगिरि हिमवान प्रदेश म पहुँचने का प्रसग है । वहा ओघ के जल का अवतरण होने पर मनु भी जिस स्थान पर उतरे उसे मनोरवसपण कहते हैं। "अपीपर वै त्वा, वृक्षे नाव प्रतिवध्नीष्व, त तु त्वा मा गिरी सन्तमुदकमन्तश्चैत्मीद यावद् यावदुदक समवा यात्-तावत् तावदन्ववसर्पासि इति स ह तावत् तावदेवान्ववसस । तदप्येतदुत्तरस्य गिरेमनारवमपणमिति । (८-१)" श्रद्धा के साथ मनु का मिलन होने के बाद उसी निजन प्रदेश मे उजडी हुई सृष्टि को फिर से आरम्भ करने का प्रयत्ल हुआ। किन्तु असुर पुराहित के मिल जाने से इन्हाने पशु बलि की। "क्लिाताकुली–इति हासुरब्रह्मावासतु । तो हाचतु ~श्रद्धादेवो वै मनु-आव नु वेदावेति । ती हागत्याचतु-मनो। बाजयाव त्वेति।" इम यज्ञ के बाद मनु म जो पूर्व परिचित देव प्रवृत्ति जाग उठी, उसने इडा के सम्पक म आने पर उन्हे श्रद्धा के अतिरिक्त एक दूसरी ओर प्रेरित किया । इडा के सबंध म शतपथ म कहा गया है कि उसकी उत्पत्ति या पुष्टि पाक यज्ञ से हुई और उस पूण योपिता को देखकर मनु ने पूछा कि "तुम कौत हो इडा ने कहा, "तुम्हारी दुहिता हूँ।' मनु ने पूछा कि "मेरी दुहिता कैसे ?' उसने कहा, "तुम्हारे दही, घी इत्यादि के हविया से ही मेरा पोषण हुआ है ।" "ता ह" मनुरुवाच-"का असि ' इति । "तव दुहिता" इति। "क्थ भगवति ? मम दुहिता" इति। (शतपथ ६ प्र० ३ प्रा०)। इडा के लिए मनु को अत्यधिक आकषण हुआ और श्रद्धा से ? प्रसाद वाङ्गमय ॥४०८॥
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