ऐसा कथन तथ्य का अपलाप है कि पूज्य पिताजी स्वास्थ्य को अशक्यता से उस आदि सस्करण के मुद्रणकाल मे चिह्ना के दोपो एव अभावो पर ध्यान नही दे पाये । और, अनेक त्रुटिया तब से चली आ रही है। वस्तुत अतिम प्रूफ और किन्ही सर्गों के तो दो दो प्रफ स्वत देख कर उन्होने मुद्रणादेश दिये उन कतिपय रक्षित प्रूफ-यापियो को अद्यापि देखा जा सकता है जो इसको साक्षी है। वास्तविक्ता यह है कि इन चिह्नो को वे बहुधा लिपि के अरकरण प्राय और काव्य के स्वच्छद प्रवाह पर अकुश रूप मानते थे। उनकी धारणा थी कि शब्दो को स्वय गोलना चाहिये कि हमे कहा रक्ना है, किम स्प मे उपस्थित होना है, पिस से जुडना है और कहा से पृथक होना है पश्चिमीय “पक्चुयेगना" को वैसाखी भारती काव्य भाषा के लिये अनिवायत आवश्यक नहीं । परन्तु आज पाचुयेशनो के अभाव म अध्ययन-अध्यापन म यदा कदा कठिनाई का अनुभव किया जा रहा है कही कही उनके अवस्थान-दोष से अर्थान्तर भी हो जाते है और वहा कामायनी की पक्ति "प्रक्ट हुआ था दोप उसी से जो सबको गुणकारी था" साथ होने लगती है। आदि सस्वरण के सशावन पन की अतिम पक्ति म पाव्य शालीनता और सहदय-गौरव के उचितावस्थान पूर्वक इम प्रमग को अपने ढग से परिभापित करते उन्हे कहना पडा "कुछ और भी पदच्छद अनुस्वार तथा विराम चिह्ना की त्रुटिया रह गई है जिह सुधार लीजिये। यह वात उम सहृदय-पक्ष की दृष्टि से कही गई जिसे चिह्ना की नुटिया प्रतीत होती हो, न कि कवि-पक्ष से ऐसा कहते चिह्न-न्यास और अय ग्रहण के लिये सहृदय-पक्ष को उसी प्रकार स्वतन रखा गया जिस प्रकार आमुख की अन्तिम पक्ति द्वारा कल्पना कवि के एकनिष्ठ अधिकार की वस्तु कही गई है। कामायनो ने, अपने भाव चार म मनुष्यता के मनोवैज्ञानिक-इतिहास का चितन और मानवता के विकास पर विचार, युगपत् किये फिर तो स्वाभाविक या कि सवत्त और विवत्त की सच्या कामायनी के स्थानक प्रसाद वाङ्गमय ॥४००॥
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