पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४४०

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? अपना दल-अचल पसार कर बन-राजी , मागती है जीवन का विन्दु बिन्दु ओस सा क्रन्दन करता सा जलनिधि भी मागता है नित्य मानो जरठ भिखारी सा जीवन की धारा मीठी मीठी सरिताओ से । व्याकुल हो विश्व, अन्य तम से भोर मे ही माँगता है "जोवन की स्वणमयी किरणे प्रभा भरी। जीवन ही प्यारा है जीवन सौभाग्य है।" रो उठी मैं रोप भरी बात कहती हुई "मार कर भी क्या मुझे मरने न दोगे तुम मानती हूँ शक्तिशाली तुम सुलतान हो और मै हूँ बन्दिनी। राज्य है बचा नही, किन्तु क्या मनुष्यता भी मुझम रही नही इतनी मे रिक्त हैं" क्षोभ से भरा था कठ फिर चुप हो रही। शक्ति प्रतिनिधि उस दृप्त सुलतान की अनुनय भरी वाणी गूंज उठी कान में । "देखता हूँ मरना ही भारत को नारिया का एक गीत भार है। रानी तुम बन्दिनी हो मेरी प्राथनाओ म पद्मिनी को खो दिया है किन्तु तुमका नहीं। शासन करोगी इन मेरी क्रूरताओ पर निज कामलता से-मानस की माधुरी से । आज इस तीन उत्तेजना की आंधी में सुन न सकोगी, न विचार ही करोगी तुम ठहरो विश्राम करो।" अति द्रुत गति से कब सुलतान गये जान सकी मै न, और तब से यह रगमहल बना सुवण पीजरा । लहर ।।३८९॥