पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४१९

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जल- ओ री मानस की गहराई । तू सुप्त, शात कितनी शीतल- निर्वात मेघ ज्यो पूरित नव मुकुर नीलमणि फलक अमल, ओ पारदर्शिका | चिर चचल- यह विश्व बना है परछाइ । तेरा विपाद द्रव तरल तरल मूर्छित न रहे ज्या पिये गरल सुख-लहर उठा री सरल सरल लघु लघु सुन्दर सुन्दर अविरल, -तू हँस जीवन की सुघराई । हंस, झिलमिल हो लें ताग गन, हस खिले कुज म सक्ल सुमन, हम, विखरें मधु मरन्द के कन, बन कर ससृति के तव श्रम क्न, सब कह दे 'वह राका आई ।' हंस ले भय शोक प्रेम या रण, हँस ले काला पट ओढ हँस ले जीवन के लघु लघु क्षण, देकर निज चुम्बन के मधुकण, नाविक अतीत की उतराई । मरण, प्रसाद वाङ्गमय ।। ३६८॥