निरधक तूने ठुकराया तब मेरी टटी मधू प्याली को, उसने सूखे अधर मानंगते जीवन रस को बचे हुए कन बिखरे अभ्बर म आँशू वही दे रह था सावन धन वसुंधरा की इस हरियाली को