यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
उन शान्त तपोवन कुञ्जो में, कुटियो, तृण-वीरुध पुजो में, उटजो में था आलोक भरा कुसुमित लतिका झुक आई थी। मृग मधुर जुगाली करते से, खग कलरव में स्वर भरते से, विपदा से पूछ रहे किसको पदध्वनि सुनने में आई थी। प्राची का पथिक चला भाता, नभ पद-पराग से भर जाता, वे थे पुनीत परमाणु दया ने जिनसे सष्टि बनाई थी। तम की तारुण्यमयी प्रतिमा, प्रज्ञा पारमिता की गरिमा, इस ब्यथित विश्व की चेतनता गौतम सजीव बन आई थी। उस पावन दिन की पुण्यमयी, स्मति लिये धरा है धैर्यमयी, जब धम चक के सतत प्रवर्तन की प्रसन ध्वनि छाई थी। युग युग की नव मानवता को, विस्तृत वसुधा को विभुता को, कल्याण संघ की जन्मभूमि आमत्रित करतो आई थी। स्मृति चिह्नो की जजरता मे, निष्ठुर कर की बवरता में, भूलें हम वह सन्देश न जिसने फेरी धम दुहाई थी ।*
- मूलग घ कुटी विहार के समारोहोत्सव में मगलाचरण के रूप में गाया
गया। लहर।।३५९॥