आवरण मे विन्यस्त हो इदताभिमानिनी होना ही व्यस्त होना है वैशिष्टयेन यत् अस्त । यत , पदाथजगत इदभूत है और उसमे चेतना कारणत और कायत भी सलीन होती है अत व्यवहारत व्यस्त को कायलीनता की रूढ सजा मिलती चली आ रही है । मूल स्वरूप से मूल स्वभाव का छिन्नत्वेन अस्तप्राय होना व्यस्त पदवाच्य है। वृत्र के वध प्रसग म प्राप्त ऋचा 'अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वचमधिसाना जघान वृष्णोनि प्रतिमानवुभूपन्पुरुत्रा वृत्रो अशयव्यस्त (ऋक् १-२-७) के सायणभाष्य म व्यस्त शब्द का अभिप्राय 'व्यस्त विविध क्षिप्त से लिया गया है। यहा सृष्टि के वैसे विद्युत्कणा के समन्वयन से एक भुवनात्मक समाधान का इगित है स्पन्द विशिष्ट श्रद्धामय मानव को विकल्पमयी- तकमयी बुद्धि के समीप समन्वय पूवक रहकर, हृदय और बुद्धि मे 'विनिमय कर दे कर कममा त' हो राष्ट्र नीति देखना है । श्रद्धा (हृदय) और मनु (मन) परस्पर पूरक है इसीलिये 'मैं अपने मनु को खाज चली-सरिता नग उपवन कुजगलो । मन को हृदय म स्थिति मिलती है-'यतो निर्यातिविपया यस्मिश्चैवप्रलीयते हृदय तद्विजानियात् मनसस्थिति कारक' । श्रद्धा मनु का स्थिति देती है, ऐसा नहीं कि श्रद्धा का क्षन चैतम मात्र हो उससे विषया के उद्गम है, उसम विकरपो के स्वप्न भी है जा चेतन से पदाथ के विकास के सत्य से सवादित है। 'श्रद्धा का या स्वप्न किन्तु वह सत्य बना था । कि तु, उसके हाथो विकल्प रथ की जो वत्गा है वह कल्याणमय सकल्प के आलोकित तन्तुओ से ग्रथित है। उपादान के तात्विक के सयमन मे कहती है- देव असफलताओ का ध्वस प्रचुर उपकरण जुटा कर आज पड़ा है बन मानव सम्पत्ति पूर्ण हो मन का चेतन राज ध्वसरूप वे देव असफलतायें अब ऋक्य रूप म मानव की वास्तविक सम्पदा है जिनसे एक नई मानवी संस्कृति के उद्भव और विकास की प्रतिज्ञा कामायनी देतो है-'पूण हो मन का चेतन राज ।' सृष्टि मूल परक आधार-दृष्टि मे भेद के कारण ही कामायनी मे मानव समाज की परिकल्पना प्राक्तन और अनैतिहासिक मानी जाती है जो दृष्टि भेद के अतिरिक्त इस व्यापक परिवेश के सम्पूर्ण उपक्रम चिन के आकलन मे असमथ रहने से असम्भव नही। कामायनी मे इतिहामतत्व के प्रति भी चेतनानिष्ठ दृष्टि है जिसका परिणाम बनता है वस्तुपरक इतिहाम । प्रसाद वाङ्गमय ॥४८॥
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।