देवो के अशरीरी सहचर रति-काम हैं एक अपनी प्रतिकृति लज्जा के रूप मे तो दूसरा अपनी भाव मूर्ति म । श्रत् को अवधारिया श्रद्धा है, विवेक के उच्चतम धरातल की प्रभामूत्ति इडा है एव 'मामिप लोलुप रसना' वाले व किलात-आकुलि हैं जो अपनी असुरोपासना अर्थात् प्राणो की पूजा का प्रचार प्राणी की बलि देकर करने मे दक्षत उपस्थित हैं। कुमार अर्थात् मानव-समाज का आदि-छन्द तो अन्तत आने वाला है। उपस्करण रूप शस्य अन्न-पशु के अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण वह 'पहला सचित अग्नि' है जो देव-सष्टि के इन बचे वुचे अवशेपो से अति-जागल जागल और बबर युग के बहुत पोछ छूट जाने का सकेत दे रहा है। इन चारिनो म देव-युग का समृद्धि, अनुभूति और गाढत सश्लिष्ट उस युग के आतरात्मिक सस्कार सर्वालत हैं। कामायनी विश्व-व्यक्तित्व का विकास चेतना से कहती है इडा के मुखसे ऐसी सस्तुति कुछ विशेषता रखती है-'यह मनुष्य आकार चेतना का है विकसित' (मघप) फिर वस्तु से चेतना की उत्पत्ति की आग्रहित- मान्यता ल अपने गुणन फल न पाये जा सकें तो विस्मय क्या? ऐसी निराशा का कारण कामायनी के स्वारस्य मे नही अपितु कामायनी-दृष्टि से असहमति या फिर विषय-वस्तु के ग्रहण मे अममथता ही हो सकती है । पदाथ-सत्य और वस्तु-तथता कामायनी मे उचितापस्थित है, उपेक्षित नही। पदाथ जीवन चिति और उसकी उन्मीलन प्रक्रिया में परिणत प्रस्तुत पदाय को वहा नित्य-सक्रियता है-'चिति का स्वरूप यह नित्यजगत, वह रूप बदलता है शत शत । कामायनी में विश्व का उन्मीलन प्रमगोपात्त है। किसी निमीलित दशा से ही उन्मीलन सम्भव है और फिर नित्य वत्तमानता के अभाव मे, निमोलन-उन्मीलन किसका और कैसे? 'अवस्थितस्यैव प्रकटीकरण उन्मीलनम् ' प्रलय-गत विकपणो से असमागम को दशा म आकार पृथक् , पदाय के सूक्ष्मतम भावो अर्थात् विद्युत्कणो किंवा शक्ति के अणुभूत और खण्डावस्थित अशा के समन्वय और परस्पर समागम-आपुजन से मानवता वा उत्कप और सस्कृति के पत्याणमय विकाम का सन्देश कामायनी म प्राप्त है। 'सष्टि के विद्युत्कण जो व्यस्त विक्ल बिखरे हैं हो निरूपाय, समन्वय उनका परे समस्त विजयिनी मानवता हो जाय , इन कणा की व्यस्तता कैमी जवकि निरुपाय निष्क्रिय रह वे बिखरे पडे है। सुतराम् कायलीनता से यहा व्यस्तताका अभिप्राय नहीं होगा। चेतना का स्वरूप सत्ता से छिन और क्षिप्त हो अपने स्वभाव को मक्षिप्त कर इदमात्मक प्राक्कथन ॥४७॥
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