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आती, माती, आकुल अकूल वनने अब तक तो है वह देवलोक की अमृत क्था को माया- छोड हरित कानन की आलस छाया- विथाम मांगती अपना। जिसका देखा था सपना- निस्सीम व्योम तल नील अक मे- अरण ज्योति की झील बनेगी कब सलील? हे सागर सङ्गम अरण नील। an प्रसाद वाङ्गमय ॥३४२।।