पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३७

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नारी, प्रकृति अथवा शक्ति का गोचर यथार्थ नर, पुरप अथवा अणुभाव गत शिव को प्रथमत पाशबद्ध करने मे देखा जाता है । वेदात के ब्रह्म की माया शवलित अवस्था कुछ इसी प्रकार की है जिसे अकाम निष्क्रिय और स्वत मूल मे स्थिति मान कह शक्ति रहित एक निश्चेप्ट सत्ता के रूप म परिभापित किया जाता है। यह माया के पुस्पाथ का एक चरणमान है। किन्तु नारी का, जो स्वाधीन सत्ता की शक्ति का भौतिक विग्रह है परमपुरुपाथ किंवा प्रयोजनीयता का यथाथ वस्तुत पशु ( नर ) की पाशमुक्ति मे ही मफल होती है- सेय क्रियात्मिकाशक्ति शिवस्यपशुवत्तिनी बन्वयित्री स्वमागस्था ज्ञाता सिद्ध्युपपादिका इस वस्तुत प्रयोजनीय यथाथ का परिज्ञान ही नारी, प्रकृति अथवा शक्ति को सिद्धयुपपादिका के रूप म ला देता है। पुम्प ममवाय म यह वीरभाव गत आरोही वीय है, पुरप का परम पुरपाथ है जिसके पूर्णावस्था की प्रान्त रेखा पर विगलित भेद सस्कार 'आनन्द अम्बुनिधिशोभन' लहराता है और जो, अपने सवमागत्य के शुभत्व की पराकाष्ठा के कारण ही सिद्धयुपपादिका पदवाच्य है क्सिी विकरप खचित भिनमणि गुम्फ परिणामी सौदय के मासल विग्रह के हतु नही । जो, पाशित होने के भय से ही घबरा उठे उन्होने अभया अमला के मौलिक यथाथ को अनदेसा कर घोषणा कर दी-'नारी नरकस्य द्वार' । किन्तु यह नहीं बताया कि 'त्रिविध नरकस्येद' मे इस किम कोटि म रखा जाय ? निषेध का अवसाय शक्ति का रूप है-'निषेधव्यापाररूपा शक्ति' 'उस निषेधमयी को निषिद्ध मानने मे पाशभुवित समर्थित होती है पाशमुक्ति नहीं। किसी भी अन्य भाव का निषेध हो तो स्वभाव प्रतिष्ठा किंवा स्वरूप प्रतिष्ठा है ? जीवन की विडम्बना अथवा इच्छा, ज्ञान और क्रिया की परस्पर असहमति का विलोप, शक्ति के प्रमाद पर निभर है न कि सुप्त-स्पन्द के प्रमाद पर । महाज्योति रेखा-सी बनकर श्रद्धा की स्मिति दोडी उनम, वे सम्बद्ध हुये, फिर सहसा जाग उठी थी ज्वाला उनमे । नीचे ऊपर लचकीरी वह विपम वायु म धधक रही सी, महाशूय मे ज्वाला सुनहली, सबको कहती 'नही-नही-सी। कामायनी की क्था मन्वन्तर की सन्ध्या से चलती है। भारतीय कालगणना एक अयत्र-दुलभ परिकल्पना है यहा उमके विस्तार पर प्रसाद वाङ्गमय ॥४४॥