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ज्योज्यो उलझन बढती थी बस शान्ति विहंसती बैठी उस बन्धन मे सुख बंधता करणा रहती थी ऐंठी। हिलते द्रुमदल कल किसलय देती गलबाही डाली फूलो का चुम्बन, छिडतो- मधुपो की तान निराली । - मुरली मुखरित होती थी मुकुलो के अधर विहंसते मकरन्द भार से दब कर श्रवणो मे स्वर जा बसते । परिरम्भ कुम्भ को मदिरा निश्वास मलय के झोके मुख चन्द्र चादनी जल से मै उठता था मुंह धोके । थक जाती थी सुख रजनी मुख चन्द्र हृदय म होता श्रम सीकर सहश नखत से अम्बर पट भीगा होता। सोयेगी कभी न वैसी फिर मिलन कुञ्ज मे मेरे चादनी शिथिल अलसायी सुग्व के सपनो से तेरे। आँसू ॥ ३११॥