पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३६३

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विकसित सरसिज वन-वैभव के अचल मे उपहास करावे अपना जो हंसी देख ले पल मे। मधु ऊपा मुख-कमल समीप सजे थे दो किसलयसे पुरइन के जलविन्दु सदृश ठहरे कब उन कानो मे दुख किनके ? थी किस अनङ्ग के धनु की वह शिथिल शिंजिनी दुहरी अलबेली वाहुलता या तनु छवि सर को नव लहरी? चचला स्नान कर आवे चद्रिका पव मे जैसी उस पावन तन की शोभा आलोक मधुर थी ऐमी । छलना थी, तब भी मेरा उसमे विश्वास घना था उस माया की छाया में कुछ सच्चा स्वय बना था। वह रूप स्प ही केवल या रहा हृदय भी उसमे जडता की सब माया थी चैतन्य समझ कर मुझमे । मेरे जीवन की उलझन विखरी थी उनकी अलके पी ली मधु मदिरा किमने थी वन्द हमारी पलकें। प्रसाद वाङ्गमय ।। ३१०॥