अवस्था मे पशुओ से रक्षा के लिये आवास चाहिये, (गुहा अब अपर्याप्त है ) भावी शिशु के लिये वस्त्र उपस्करण चाहिये-यह नारी का चिन्त्य वनता है | प्राणो की चिरनग्नता और उसकी शाश्वती-क्षुधा के प्रति भी नारी सजग हुई। प्रगति के इन तत्वो की रयाति से अपनी अहकार भरी अगति के चलते पुरुष सहमत नहीं होता उसे प्रतिस्पी प्रतिस्पर्धी की आशा होती हे वतमान के भावो का भविष्य मे अभाव दीग्वता है, सुतराम् परिवतनो के भावो आयाम से वितृष्ण और विषण्ण होकर, उसे अपने निवन्ध वतमान का प्रतियोगी मान कर, वह अनन्य का त्याग और अन्य की कामना करता है । (द्रष्टव्य-ईर्ष्या सग) स्वभावत , आवयवोय सस्थानगत अपनी विलक्षणताओ से नारी गतिमयी, प्रवाहमयी तथा च प्रकृति की लघु प्रतिस्पाकृति है और नर स्थाणु-पुस्प है जो, 'गुणात्मक परिवतनो की प्राकृतिक क्षमताओ में दुवल होकर उनका कारयिता नही अपितु साक्षी मात्र है। इस साक्ष्य मे नर का रच मान परिवतन ग्राह्य नही सुतराम् उसके समक्ष प्रथम प्रस्तुत नारी के चित्र मे किसी विकास की गुणात्मक स्थिति उसे रुचि कर नही और यदि वैमा होता है तो वह अपने इसी स्वभाववश पूवगत नारी के भावचिन देखने को विकल हा जाता है। सुतराम् इस दशा म मनु कहते है- ला आज चला में छोड यही सचित सवेदन भार पुज मुझका काटे ही मिले धन्य हो सफल तुम्हे ही कुसुमकुज (ईप्या) कामायनी में नारी को एक ऐसी प्रगतिमयो विश्वात्म मूर्ति की करपना है जो साथ ही विश्वमयी भी है। आदि मे वह सृष्टिमगल की प्रेरिका बनी मधु गुजार करती जाती है (सुना यह मनु ने मधु गुजार श्रद्धा सग ) तत इस उपक्रम मे निजका समपण करती है और अन्त मे उसकी क याणमयी मातृमूर्ति प्रकाशित होती है जिसके समक्ष असमर्थ- अगतिवान नर अपने को समर्पित करता है। ये परस्पर उभय समपण समन्वय और सामग्म्य की अन्-अय मूर्ति मे ढल जाते हैं। विश्वभर सौरभ से भर जाता है और वह 'मधुगुजार' अब बिखेरे गये सुमनो से बहुगणित हो 'शत गत मधुपा का गुजन बन जाता है अर्थात् मातृमगल का परम माल्प सिद्ध होता है (श्रद्धा ने सुमन विग्वेरा शत शत मधुपो का गुजन-आनद मग) प्राक्क्थन ॥४३॥
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