विन्दु हृदय म छिप रहे इस डर से भी तो छिपा लिया था, नही प्रेम रस बरसे ॥ स्नेह कभी इसको भी विछल पडे न सुपथ से। आवरण हो देखे न मनोहर कोई रथ से ॥ सी अपरूप छटा लेकर आये तुम प्यारे । आ अधिकृत अब तुमसे, तुम जीते हम हारे । '१२९६॥