पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३४२

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अतिथि हृदय गुफा थो शून्य, रहा घर सूना। इसे बसा शोघ्र, वढा मन दूना ॥ अतिथि आ गया एक, नहीं पहचाना। हुए नही पद शब्द, न मैंने जाना ।। हुआ वडा आनन्द, वसा घर मेरा। मन को मिला विनोद, कर लिया घेरा॥ उसको कहते "प्रेम" अरे अब जाना। लगे कठिन नख रेख, तभी पहचाना॥ अतिथि रहा वह किन्तु ना घर बाहर था। लगा खेलने खेल, अरे, नाहर था। झरना ॥ २८७॥