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प्रत्याशा मन्द पवन बह रहा अंधेरी रात है। आज अकेले निर्जन मे क्लान्त हो- स्थित हूँ, प्रत्याशा मे में तो प्राणधन । शिथिल विपञ्ची मिली विरह सगीत से वजने लगी उदास पहाडी रागिनी । कहते हो-"उत्कण्ठा तेरी क्पट है।" नही नहीं उस धुंधले तारे को अभी,- आधी खुली हुई खिडकी की राह से जीवन-धन । में देख रहा हूँ सत्य ही। दिखलाई पडता है जो तम-व्योम मे, हिचको मत निस्सङ्ग न देख मुझे अभी । तुमको आते देख, स्वय हट जायेंगे- वे सब, आमओ, मत सकोच करो यहा । सुलभ हमारा मिलना है-कारण यही- ध्यान हमारा नही तुम्हे जो हो रहा । क्योकि तुम्हारे हम तो करतलगत रहे हाँ, हाँ, औरो की भी हो सम्बधना । प्रसाद वाङ्गमय ॥ २६६॥ -