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पाईंवाग सरसो के पीले कागज पर वसन्त को आज्ञा पाकर। गिरा दिये वृक्षो ने सारे पत्ते अपने सुखला कर ॥ खडे देखते राह नये कोमल किसलय की आशा मे । परिमलपूरित पवन-कठ से, लगने की अभिलाषा मे ।। अतल सिन्धु मे लगा लगा कर जीवन की बेडी बाजी। व्यथ लगाने को डुब्बी हाँ, होगा कौन भला राजी ।। मिले नहीं जो वाछित मुक्ता अपना कठ सजाने को। अपना गला कौन देगा यो, बस केवल भर जाने को। मलयानिल की तरह कभी आ, गले लगोगे तुम मेरे। फिर विकसेगी उजडी क्यारी, क्या गुलाब की यह भेरे ॥ कभी चहलकदमी करने को,कांटो का कुछ ध्यान न कर। अपना पाईबाग बना लोगे प्रिय । इस मन को आकर। झरना ॥२६५॥