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दीप धूसर सन्ध्या चली आ रही थी अधिकार जमाने को, अन्धकार अवसाद कालिमा लिये रहा वरसाने को। गिरि सकट मे जीवन-सोता मन मारे चुप वहता था, कल कल नाद नही था उसमे मन की बात न कहता था। इसे जाह्नवी सा आदर दे किसने भेंट चढाया है, अञ्चल से सस्नेह बचाकर छोटा दीप जलाया है। जला करेगा वक्षस्थल पर वहा करेगा लहरी मे, नाचेंगी अनुरक्त बीचियाँ रजित प्रभा सुनहरी मे, तट तरु की छाया फिर उसका पैर चूमने जावेगी, सुप्त खगो को नीरव स्मृति क्या उसको गान सुनावेगी । देख नग्न सौन्दय प्रकृति का निजन म अनुरागी हो, निज प्रकाश डालेगा जिसमे अखिल विश्व समभागी हो। किसी माधुरी स्मित सा होकर यह सकेत बताने को, जला करेगा दीप, चलेगा यह सोता बह जाने को ॥ , o प्रसाद वाङ्गमय ।। २५०॥