पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२९७

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पावस-प्रभात नव तमाल श्यामल नीरद माला भली श्रावण की राका रजनी मे घिर चुकी, अब उसके कुछ बचे अश आकाश मे भूले भटके पथिक सदृश हैं घूमते । अध रात्रि मे खिली हुई थी मालती, उस पर से जो बिछल पडा था, वह चपल- मलयानिल भी अस्त व्यस्त है घूमता उसे स्थान ही कही ठहरने को नहीं । मुक्त व्योम मे उडते उडते डाल से, कातर अलस पपीहा की वह ध्वनि कभी- निक्ल निकल कर भूल या कि अनजान मे, लगती है खोजने किसी को प्रेम से। क्लान्त तारकागण की मद्यप-पण्डली नेन निमीलन करती है फिर खोलती। रिक्त चपक सा चन्द्र लुढक्कर है गिरा, रजनी के आपानक का अब अत है। रजनी के रजक उपकरण बिखर गये, चूंघट खोल उपा ने झांका और फिर- अरण अपागो से देखा, कुछ हँस पडी, लगी टहलने प्राची प्रागण मे तभी ।। प्रसाद वाङ्गमय ॥ २४०॥