- - खुले हुए कच भार बिखर गये थे बदन पर जैसे श्याम सिवार आसपास हो कमल के कैसा सुन्दर दृश्य । लता-पन थे हिल रहे जैसे प्रकृति अदृश्य, बहु क्र से पखा झले निनिमेष दृग नील देख रहे थे राम के जैसे प्रहरी भील खडे जानकी वदन के नैसर्गिक सौन्दय देख जानकी-अङ्ग का नृपचूडामणिवय राम मुग्ध से हो रहे 'कुछ कहना है आय' बोले लक्ष्मण दूर से 'ऐसा ही है काय, इसमे देता कष्ट हूँ राघव ने सस्नेह कहा-'कहो, क्या बात है कानन हो या गेह, लक्ष्मण तुम चिरबन्धु हो फिर कैसा सकोच ? आओ, बैठो पास मे करो न कुछ भी सोच, निभय होकर तुम कहो' पाकर यह सम्मान, लक्ष्मण ने सविनय कहा- "आय | आपका मान, यश, सदैव बढता रहे फिरता हूँ मै नित्य, इस कानन मे ध्यान से परिचय जिसम सत्य मिले मुझे इस स्थान का अभी टहलकर दूर, ज्योही मैं लौटा यहा एक विक्टमुख क्रूर भील मिला उस राह मे मेरा आना जाना, उठा सजग हो भील वह मैंने शर सन्धान क्यिा जानकर शनु को किन्तु, क्षमा प्रति बार, मागा उसने नम्र हा रुका हमारा वार, पूछा फिर---'तुम कौन हो' उसने फिर कर जोड कहा-'दास हूँ आपका चरण कमल को छोड, और कहा मुझका शरण, निपादपति का दूत हूँ मैं प्रेरित आया यहा कहना है करतूत भरत भूमिपति का प्रभो सजी सैन्य चतुरङ्ग बलशाली ले साथ मे किये और ही ढङ्ग, आते हैं इस ओर को' पुलक्ति होकर राम बोले लक्ष्मण वीर से- 'और नही कुछ काम, मिलने आते हैं भरत' प्रसाद वागमय ॥२१०॥
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२६७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।