पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२४९

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याचना जव प्रलय या हो समय, ज्वालामुखी निज मुस गोल दे सागर उमडता था रहा हो, शक्ति-साहस बोल दे ग्रहगण सभी हा पेन्द्रच्युत लडकर परस्पर भग्न हा उस समय भी हम है प्रभो । तव पनपद म लग्न हो जव रोल के सन शृङ्ग विद्यु वृद के आघात से हो गिर रहे भीपण मचाते विश्व म व्याघात से जब घिर रहे हा प्रलय घन अवकाश गत आकाश मे तव भी प्रभो। यह मन सिंचे तव प्रेम धारा-पारा म जव कर पड्रियु के कुचक्रो म पड़े यह मन कभी जब दुस पी ज्वालावली हो भस्म करती सुख सभी जय हो कृतघ्नो के कुटिल आघात विद्युत्पात से जव स्वार्थी दुख दे रहे अपने मलिन छलछात से जव छोडार प्रेमी तथा सन्मित्र सर ससार म इस घाव पर छिडकें नमक, हो दुख खडा आवार म करणानिधे हा दुससागर मे सि हम आनन्द मे मन-मधुप हो विश्वस्त प्रमुदित तव चरण अरविन्द मे हम हो सुमन की सेज पर या कटको की झाड म पर प्राणधन | तुम छिपे रहना, इस हृदय की आड मे हम हो यही इस लोक मे, उस लोक मे, भूलोक मे तव प्रेम-पथ मे ही चलें, हे नाथ | तव आलोक म प्रसाद वाङ्गमय ।।१८८॥