दिया गया सुतराम् सस्कृति के उभय बाहु, दशन और साहित्य भिन्न देहमस्थानीय वन अपने दायित्व से विमुख हो गये एक ने मणिदोप खोया दूसरे ने भधुधारा का तिरस्कार दिया। वे उभय बाहु, मस्कृति का स्थिति निष्ठ वस्तु मान इम गतिशील जगत को सूखे वक्षो के आरक्षित वन से कटक्ति रखने में ही अपना क्त्तव्य मान बैठे किन्तु सस्कृति चाहे जैसे परिभापित की जाय, सस्करणा की अनवरत क्रिया म होने वाले माजन में हो उसका प्राण मिलेगा हां, उसकी अतरग भमि में उस शाश्वती सत्ता को भी स्वीकार करना होगा जो सज्ञाभावेन उस क्रियापदीया सस्कृति में मौलिक वस्तु रूप रह सस्करणो के आरोप स्वीकार करती है वह मानव समाज के अन्तर्जात श्रेय और प्रय का समन्वित-ममरस और अभिगान्त सकल्प है, जिसका उदित शृगार ही सस्कृति के रूप लेता है चाहे उसे जानपद सोमा में घेर रखा जाय अथवा आब्रह्मस्तम्ब स्फीत कर दिया जाय । ऐसे सकल्प की सस्करण पदा गति के रुकने का अथ हागा असस्कृति की भाव प्रतिष्ठा और किमी लघु परिसीमन का परिणाम होगा आत्मसकोच न कि आत्म विस्तार । फिर, अनागत मे प्रत्यह वत्तमान मे आते रहो वाल गतिगुणो के निषेध द्वारा अतीत के विगताथ-प्राय को वत्तमान म एकमेव साथक्ता देने का प्रसगोपात्त उपक्रम, कान्तार-कृषि तुल्य ही होगा। परिसीमनो से बहुगुणित इमाइयाँ परस्पर क्षुब्ध हो सघप की भूमिका प्रस्तुत करती है तब समान क्षुत्पिपासा वाला पाणिपादमय मानव अपनी महासहति को शतधा सहस्त्रधा विखण्डित कर कराहता है क्वचित् भौगोलिक अव स्थितियो से ऐतिह्य दशाओ की धरा बनती है, जिस पर ऐसे खण्डन मेघ की वेदिया प्रज्वलित होती हैं। समाज और उसके धर्मों के नियामक अध्वयु-उद्गाता बनते है किन्तु, समिवा बनतो है मानव की वही नैसर्गिक महासहति जिसके छद आज बिखरते जा रहे है । ऐसे चातुरन्त अन्धकार से घिरी समष्टि चेतना को जागरण और आलोक की महती आवश्यक्ता थी वह दिशा चाहे साहित्य की हो, दर्शन की हो, राजनीति की हो अथवा समाज की अन्यान्य किसी भी प्रवत्ति की। ऐसे आलोक जागरण का सन्देश प्रसाद भारती देती है उसने बताया कि व्यक्तिगत स्थानीय केन्द्रो के न रहने पर भो सत्य या श्रेय ज्ञान कही चला नही जाता वह सामान्य-स्पन्दतया सदैव विद्यमान रहता है मनन की असाधारण अवस्था किंवा विशेष-स्पन्द मे मत्य की मौलिक चारु मूर्ति प्रसाद वाङ्गमय ॥२४॥
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