पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२२४

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ग्रीप्म का मध्याह्न विमल व्योम म देव दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं छाया का आश्रय पाने को जीव मडलो गिरती है चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है प्रिय वसत के विरह-ताप से धरा तप्त हो जाती है तृष्णा होकर तृपित प्यास-ही-प्यास पुकार मचाती है स्वेद घूलि गण धूप-लपट के साथ लिपटकर मिलते हैं जिनके तार व्योम से बँधकर ज्वाला-ताप उगिलते हैं पथिक देख आलोक वही फिर कुछ भी देख न सकता है होकर चक्ति नही आगे तब एक पैर चल सकता है निजन कानन मे तरवर जो खडे प्रेत से रहते हैं डाल हिलाकर हाथो से वे जीव पकडना चाहते हैं देखो, वृक्ष शात्मली का यह महा भयावह कैसा है आतप भीत विहङ्गम-कुल का क्रन्दन इस पर कैसा है लू के झोंके लगने से जब , डाल सहित यह हिलता है कुम्भवण मा कोटर मुख से अगणित जीव उगिलता है हरे हरे पत्ते वृक्षा के तापित हो मुरझाते हैं देखादेखी सूख सूखकर पृथ्वी पर गिर जाते हैं घूल उडाता प्रबल प्रभजन उनको साथ उडाता है अपने खड खड शब्दा को भी उनके साथ बढाता है - कानन कुसुम ॥ १६३ ॥