सुतराम, आर्थिक-सामाजिक-गजनीतिक बन्धना से मुक्ति की बलवती अभीप्मा म, भारत की दासभूत प्रजा ने अपनी इयत्ता की सहज अभिव्यक्ति म, रावी के तट पर जैसी सकरपमयी घोषणा की 'स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम पूण-स्वराज्य ही लेना है' वैसी ही घोषणा, विकल्प के पाश बंधे और रूढि के अकुग से विधे मनोमय भाव-जगत द्वारा अपनी शब्दमयी अभिव्यक्ति के अथ हुई । उस सामान्य- भूत भाव-जगत में काव्य के मौलिक प्रयोजनीयता का प्रश्न सवथा नये परिवेश मे उठा जिसके त्तर मे काव्य के उद्भव और सहजरूप को परिभापित करते जाह्नवी के कूल पर प्रसाद भारती ने एक मून दिया 'काव्य शात्मा को सकल्पात्मक अनुभूति है'। समाज और माहित्य उभय स्तरो के ऐसे उन्मेष, वोधोन्मुखी-ममष्टि चेतना के क्रमिक विकास के परिणाम थे, जिनका घटित होना कोई अ क्रम-आकस्मिक्ता नहीं अपितु तारतम्य-गठित ऐतिहासिक तथ्यो की स-क्रम निष्पत्ति के अवश्यम्भावी फल थे, जिनका मूत्य-महत्व परम्पर समान है और प्रभाव दूरव्यापी । समष्टि चेतना में ज्ञान की उम अनन्य सत्ता, उसकी अभग धारा, उसके अद्वयमूत्ति को सुधि जागी जिसे तद्यावधि एक व्यक्तिगत अवाप्ति और निजा सम्पदा के रूप से देखने को भूल की जाती थी, और वैयक्तिक अनुभूनिया के स्तर पर यदा-कदा उदित होने वाले जिस ज्ञान के अगो को मात्र दशन की निधि कह प्रकाण्ड पिटका मे बन्द कर दिया था । अद्यावधि-कथित दशन अस्ति-नास्ति विवेक-परक- व्यायाम शेष हो रमभित वना है। फिर भी 'रसी वै म ' कहा जाता है किमाश्चयमत परम् । वैसे दर्शन सज्ञावाप्त स्फुरण का साहित्य से कोई तात्पय अथवा सम्बन्ध नही है, ऐमा कह कर तो श्रेयमय चिन्तन की प्रेयमयी-अभि- व्यक्ति-वीथी को सवथा वर्जित कर देना होगा। ऐसा करने से दशन, साहित्य और सस्कृति किसी के प्रति न्याय न होगा ऐसी विचारधारा साहित्य की मूल प्रयोजनीयता को अनुदात्त बनाये रखने के अथ उत्तर- दायी है जिस पर दर्शन के मनीषी और साहित्य के कृती एक समन्वित चिन्तन का अभी अवकाग न पा सके यदि किसी न व्यान दिलाया अथवा सकेत किया तो उस पर आध्यात्मिक्ता का चन्दन-रेप चढा देवायतन की अगला मे डाल उसे सामान्य स्पश की वस्तु बनने से रोक प्राक्क्थन ॥२३॥
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