पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२०१

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भारत के मिलती मुझे पराजय भो यदि युद्ध में तो भी इतना क्षोभ न होता हृदय मे ।" पहा, देख कर नत हग से नवाब ने- "जिसकी महिमा गाते हैं समकण्ठ से नर-नारी, उस सम्राट का बढा महत्त्व, हुई प्रताप से शनुता सचमुच ऐसा वीर उदार कहा मैं तो अब, फिर जाऊँगा दिली अभी, चाहे मुभको लोग कायर यह उम अपयश को सह लूंगा मे भले ही विन्तु न सैनप-पद अब मेरे योग्य है। मिले। भल कहा पास मे और खिसक कर प्रेम से कमल-लोचना वेगम ने नव्वाब से- "प्रियतम । सचमुच यह पावत्य प्रदेश भी अब न मुझे अच्छा लगता है, शीघ्र ही मै चलना चाहती सुखद काश्मीर को। कुछ दिन की छुट्टी लेकर सम्राट से, चलिए जल-परिवतन कग्ने शीघ्र ही और हो सके तो मिलकर सम्नाट से, राणा से शुभ सधि करा ही दीजिये।" "मुग्धे । इतने पर भी तुम परिचित नही कुलमानी, दृढ, वीर से। भला करेगा सधि कभी वह यवन से? कई हो चुके हैं प्रस्ताव मिलाप के पर प्रताप निज दृढता ही पर अटल कहा खानखाना ने कुछ गम्भीर हो- "वामलोचने कमयोग-रत वीर को मिलती सिद्धि सदा अपने उसके कुछ सयोग बन जायेंगे एसे, जिससे उसको मिले अभीष्ट फल । प्रसाद वाङ्गमय ॥१३८॥ महान् 'प्रताप' सत्कम से स्वय