पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१९

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उनयन म जहाँ उन्हे तोपो की नियत सलामी जैसे आडम्बरो का प्रमुख भाग था वही उन्ह कण, भीम और वृहस्पति बताने वाली प्रशस्तियां 'लुक्मानी कुश्ते' का काम करता थी । प्राय , दरवारो के हाथी घोडा, गायक-वादको और छय चामर के विपुल तामझाम म नागशसी बाचने वाले नियत और वृत्ति शोध मे भागत छन्द कमियो का भी एक स्थान था कभी कभी उनकी 'वानी' और छन्दो पर राजा अपनी 'मर्जी मुताबिक' स्वीय छाप लगरा कर अनायास काव्य धुरीण भी बन जाता या । गद्य का साहित्यिक व्यवहार शून्य प्राय था दरबारा म 'किस्सागो' होते थे जो 'दास्ताने अमीर हम्जा' या 'विस्सा अलिफडेला' जैमी रचनाओ के पाठ स कुतूहल की सृष्टि करते थे। ऐसा नही कि सुनने वाले सभी निरक्षर हो प्रिन्तु वहा आखो की सार्थकता लावण्य-भोग मे ही मानी जाती थी। वैमे अपवाद भी रहे जा उस परिवेश म भी उदात्त विचार और कम से सम्पन थे किन्तु उनके प्रति गोरे शकालु रहते थे। इस मोह निग के प्रमादी अ चकार को अब अतीत की क्या बनना था । सुतराम, जनमानस म सामूहिक चेतना एक विराट् थालोडन लेने लगी, जिससे जुडा था युग के अभिव्यक्ति की भाषा का विकास । अव, आगामी जागरण की प्रभाती गा कर हिदी का भविष्य बनाने वाले भारतेन्दु आ चुके थे देश और काल के विविधस्रोतो ने हि दो की स्वरूप-सरचना के उपादान जुटाये जिसम वग विशेष नही अपितु समग्र जनमानम की सहज अभिव्यक्ति की समूची सभावनायें विद्यमान थी। इमे सवादी परिवेश प्रभाव प्रसग भी मिला यद्यपि रूढ़ि के विवादी स्वरो की कमी न थी, किन्तु वे भी उसको प्रगति पुष्टि में सहायक ही सिद्ध हुए और टटे-छूटे दुबल अगो को सहेजने गभालने की हिन्दी को सुधि आती गई। अवरोध का प्रत्येक व्यवधान भाषा शक्ति की विकास मे वरदान बना । आर्थिक दोहन, राजनीतिक-भयादोहन एव सामाजिक वार्मिक विडम्बनो के चलते, हए ध्वसो से एक नये निमाण के लिये वाङ्गमय-पुस्प जव चैत य-भाव के प्रति उद्यत हुआ, तब, वेसी जागरण की बेला म उसकी घोली यदि 'सडी' हुई तो विस्मय क्या ? निरावृत तथ्य,असहाय-व्याकुलता निराशा, आशा प्रत्याशा, समन्वय विद्रोह आदि द्वन्द्वा के नाना रूप-प्रकार साहित्य मे आने लगे। भाषा 'दरबारा शिकजे' और महलो के विलाम पर्यंक मे छूट सामा य पदनो के शाश्वत लय मे घुल चली । अब, युग वेदना की वास्तविक अभिव्यक्ति से लोक-मगल का यज्ञ प्रथित हाने वाला था। प्रसाद वाङ्गमय ॥२०॥