पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१८६

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वसिष्ठ अच्छा अच्छा, तुम्ह मिलगी और भी सौ गायें। लो पहले इसको तो करो। ( अजीगत शास्त्र उठा कर चलता है ) शुन शेफ (आकाश की आर देख कर ) हे हे करुणा-सिन्धु, नियन्ता विश्व के, हे प्रतिपालक तृण, वीरघ के, सप के, हाय, प्रभो । क्या हम इस तेरी सृष्टि के नही, दिखाता जो मुझ पर करणा नही । हे ज्योतिष्पथ-स्वामी | क्यो इस विश्व की रजनी मे, तारा प्रकाश देते नही इस अनाथ को, जो असहाय पुकारता पडा दुख के गत बीच अति दीन हो हाय । तुम्हारी क्रुणा को भी क्या हुआ, जो न दिखाती स्नेह पिता का पुन से। जगत्पिता। हे जगबन्धु, हे हे प्रभो, तुम तो हो, फिर क्यो दुख होता है हमे ? त्राहि त्राहि करणालय । करणा-सम मे रखो, वला लो। विनती है पदपद्म मे । (आकाश में गजन सव अस्त होते ह । सर शक्तिहीन हो जाते हैं । विश्वामित्र का मधुच्छ दा प्रभृति अपने सौ पुत्रा के साथ प्रवेश) विश्वामित्र ( वसिष्ठ से) कहो क्हो इक्ष्वाकु-वश के पूज्य है। ओ महर्षि। कैसा होता यह काम है हाय । मचा रक्खा क्या यह अवेर है। क्या इसमे है धर्म? यही क्या ठीक है? विसी पुत्र को अपने वलि दोगे कभी? नही। नहीं। फिर क्यो ऐसा उत्पात है ? करुणालय ॥१२१॥