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अरे कौन यह ? सुनो ग्रीष्म के पथिक, न ठहरो फिर यहाँ, चलो, बढो, वह रम्य भवन अति दूर है। रोहित (आकाश को देखकर ) छाया सी है इन्द्र की कायरता का अरि, प्रतिमा पुरपाथ की वडी कृपा आकाश विहारी देव की हुई, दोन करता प्रणाम है भक्ति से। देव | आप यदि हैं प्रसन्न, तो भाग्य है , प्रभो । सदा आदेश आपका ध्यान से पाला करता रहे दास, वर दीजिये, "रके कम-पथ मे न कभी यह भीत हो" ( नेपथ्य से) हम प्रसन्न हैं, वत्स! क्रोनिज काय्य को। (रोहत जाता है।) करणालय ॥११३॥