जहां दुखी, प्रेमी, निराश, सब मीठी निद्रा म सोते आशा-स्वप्न कभी भी तो तारा-सा झिलमिल करता है चिर विछोहियो को क्रीडा-वश होकर निद्रा-बीच कभी कुहक-कामिनी मिला दिया करती है। इतना क्या कम है ? अस्ताचल जाते ही दिनकर के, सब प्रकट हुए, कैसे अन्तरिक्ष म गुप्त रहस्य समान अहा धीरे धीरे स्पष्ट, चण्ड-शासन मे जैसे असल अवस्था सुले नही। प्रियदशन होकर जब मन्त्री यथाविहित सब सुनता है हृदय खोलकर दिखलाने को कौन प्रजा प्रस्तुत न हुई ? जैसे-जैसे तारागण ये गगन-बीच प्रकटित होने वैसे नई चमेली भी अपनी डाली मे खिलती थी। परिमलवाही शात समीरण विमल मधुर मकरन्द लिये चला आ रहा नये पथिक की तरह कुटी की ओर अहो होकर अब निश्चिन्त पथिक तो वैठ गया समतल थल पर किन्तु पवन वह लगा उलझने, बार-बार बल खाता था जहा-जहाँ कलियो को पाता उन्हे हिलाता जाता था। ताराओ की माला कवरी म लटकाये, चन्द्रमुखी, रजनी अपने शाति-राज्य-आसन पर आकर बैठ गई। तेजमयी तापसी कुटी से निकल, कुञ्ज मे आ बैठी, चन्द्रशालिनी रजनी थी चुपचाप देखती दोनो को। कहा तापसी ने-“कहिये अव भद्र पथिक, अपनी गाथा- क्यो यह वेश, छोडकर घर को क्यो वन-वन मे फिरते हो?' "शुभे । अतीत क्थाएँ यद्यपि कष्ट हृदय को देती है तो भी वज्र-हृदय कर अपना, उसको तुम्हे सुनाता हूँ। विन्तु समयना इसे कहानी इस पर कुछ न ध्यान देना कष्ट न देना अपने मन को" कहा पथिक ने गद्गद् हो- "क्योकि हृदय कोमल होता है वनिताओ का, बातो मे, करणा-प्लावित होकर हग झरने को भरने लगता है । कपा की पहली किरणो के साथ स्मरण करता हूँ में उस छोटे से स्वच्छ नगर को जहां जन्म भू थी मेरी, प्रसाद वाङ्गमय ।। ९०॥
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