स्वच्छ माग था रुका जहाँ था हरी मालतो का तोरण घिरी वहाँ थी नई चमेली को रट्टी प्राकार बनी कानन के पत्तो, कोमल तिनको की उस पर छाया थी मृगछाला, कौशेय, कमण्डल, वत्कल से ही सजी रही शात निवास बनी थी कुटिया और रहा जिसके आगे नवल मालती-कुज बना दालान, अनोखे सज धज का। ढलते हुये तृतीय पहर के तपन मधुर हो जाते है उसी तरह इस मानव की अब शात अवस्था कैसी है ? 'पच्चीसी' के प्रवल भाव अव नहीं, न वृत्ति अदम्य रही स्निग्ध भाव मुखमण्डल पर क्या स्वच्छ सुधा बरसाता है । है बैठा मालती-युज मे, और बडा आश्चर्य अहो एक तापसी भी है बैठी दुख पददलिता छाया-सी। कपते म्के गदगद स्वर से बोली तापसी-"सुनो, भद्र पथिक । अब गत हो गयी, पथ चलने का समय नही पण कुटीर पवित्र तुम्हारा ही है, कुछ विश्राम करो फल, जल, भासन सभी मिलेगा जो प्रस्तुत है मेरे पाम और तुम्हारी शाति न कोई भङ्ग करेगा तृण भर भी। आत्मकथा हो मुझे सुनाने योग्य तो न वञ्चित करना सौम्य अतिथि को पाकर फिर यह निशा सहज मे बीतेगी हा प्रभात होते ही अपने पथ पर तुम लग जाओगे और दुग्विनी यही अकेली ज्यो की त्यो रह जावेगी।" कहा पथिक ने-"धन्यवाद है, ठीक कहा, अवसमय नही और लालसा लगी हृदय मे गाथा सुनें, सुनाऊँ मे इससे अच्छा यही कि रजनी आज विताऊँ कही यही । प्राय लोग कहा करते है-"रात भयानक होती है- घोर धम्म भीमा रजनी के आश्रय मे सब होते हैं।" किन्तु नही, दुजन का मन उससे भी तममय होता है जहां सरल के लिए अनेक अनिष्ट विचारे जाते हैं। जिसकी सकीणता निरस, अन्धवार भी घबराता हो उस खर-हृदय से कही अच्छी होती है श्यामा रजनी प्रेम पथि ॥ ८९॥
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