पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१४०

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करुणानिधान सुन्यो तेरी यह वान, नित दीन दुखियान पै तिहारी कृपा कोर है ।। तक ये पुकारत हैं आरत भये से क्या, संवारत न काज निज देखि दीन ओर है ।। सांचे ही भये हो नाथ पाहन के, जौन तुम्हे दीनन की आह न हिलावै करि सोर है। करुणा-समुद्र जो पे तरल तरग करि, तुमही डुबाओ तो वताओ कोन जोर है ।। पाइ आच दुख की उठत जव आह, सब धीरज नसाय तब कैसे थिर होइये ।। पावत न और ठौर तुम्हरी सरन छोड, रहे मुख मोड तुम, काके सौहँ रोइये ।। छाय रही आह तिहुँ लोकन मैं मेरे जान, तेरी करुना ते ताहि कैसे करि गोइये ॥ हिलि उठे ह्यि जहां आमन तुम्हारो, तक तुम ना हिलत ऐसे अचल न होइये ॥ आसुन अन्हात निन्हें आसुतोप देत, जो पुकारत निरीह, तवै बेग उठि धावते ॥ आरत अधर्मी अति कूर जो पतित होत दुखके समुद्र, तिन्हें वायके वचावते ॥ अतिही मलीन जिन्हें आशा कछु नाहिं, करि करना क्टाक्ष हँसि हेरो तिन्हें चावते ॥ दीन-दुख देखिये की परी तुम्हे वान, दीनबन्धु तुम्हे नाहक खुसामदी वतावते ॥ भूलि भूलि जात पदकमल तिहारो कहा, ऐसी नीच मूढ मति कीन्ही है हमारी क्यो ? घायके धसत काम क्रोच मिन्यु सगम मे, मनको हमारे ऐसी गति निरधारी क्यो? झूठे जग लोगन में दौरि के लगत नेह, सांचे सच्चिदानंद मे प्रेम ना सुधारी क्यो? विकल विलोकत, 7 हिय पोर मोचत हो एहो दीन-बन्धु दीनबन्धुता बिसारी क्या? चित्राधार ॥७७॥